सांस्कृतिक >> किशोरी का आसमाँ किशोरी का आसमाँरजनी गुप्त
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बुदेंलखंड की एक किशोरी लड़की पर आधारित उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
साहित्य जगत् में रजनी गुप्त का नाम नया नहीं है, लेकिन प्रस्तुत उपन्यास
का तेवर नया है, जिसका नाम है ‘किशोरी का आसमाँ’।
किशोरी, अर्थात् तरुणाई की ओर बढ़ती लड़की, जिसके अंतस्तल में रोज-रोज नई
उमंगे उठती हैं, नई तरंगें हिलोरें लेती हैं। जिसकी आँखों में नित-नित नए
सपने उतरते हैं। वह धरती से आकाश तक अपनी आँखों का विस्तार नई नजर से करती
है।
बुंदेलखंड में ‘किशोरी’ नाम की लड़की हर दूसरे-तीसरे घर में मिल जाएगी। लड़की का नाम किशोरी होना क्या उसकी प्रकृति को प्रतिबिंबित करने का माध्यम है ? रजनी के उपन्यास में इसी किशोरी की कथा समाहित है। कथा उस लड़की की नहीं है, जिसे पराई अमानत मानकर ससुराल विदा कर दिया जाता है। यहाँ तो वह अपने घर की बेटी भी है और बेटा भी। उसे उत्तराधिकार भी मिलता है और उत्तरदायित्व भी। वह घूँघट ओढ़कर शरमाने और चारदीवारी में कैद हो जाने का चलन अपनाने के लिए नहीं है। वह तो सपनों के साथ संकल्पों और संघर्षों की दुनिया में है। मुकाम दर मुकाम रजनी की लेखनी अपनी जड़ों से जुड़ी रहने की निशानदेही करती है और उपन्यास में बुंदेलखंड के सांस्कृतिक लगावों के आसपास उभरते हैं-ग्राम-समाज से गुजरती ईर्ष्याएँ, द्वेष, उखाड़-पछाड़ों के आक्रामक सिलसिले। चिरगाँव से दिल्ली तक की यात्रा में किशोरी की अगली पीढ़ी की किशोरियों के पगचिन्ह हैं। स्त्री की स्वाभाविक जिजीविषा को कायम रखने वाला यह उपन्यास रचनाकार के रूप में रजनी की अलग पहचान बनाएगा।
बुंदेलखंड में ‘किशोरी’ नाम की लड़की हर दूसरे-तीसरे घर में मिल जाएगी। लड़की का नाम किशोरी होना क्या उसकी प्रकृति को प्रतिबिंबित करने का माध्यम है ? रजनी के उपन्यास में इसी किशोरी की कथा समाहित है। कथा उस लड़की की नहीं है, जिसे पराई अमानत मानकर ससुराल विदा कर दिया जाता है। यहाँ तो वह अपने घर की बेटी भी है और बेटा भी। उसे उत्तराधिकार भी मिलता है और उत्तरदायित्व भी। वह घूँघट ओढ़कर शरमाने और चारदीवारी में कैद हो जाने का चलन अपनाने के लिए नहीं है। वह तो सपनों के साथ संकल्पों और संघर्षों की दुनिया में है। मुकाम दर मुकाम रजनी की लेखनी अपनी जड़ों से जुड़ी रहने की निशानदेही करती है और उपन्यास में बुंदेलखंड के सांस्कृतिक लगावों के आसपास उभरते हैं-ग्राम-समाज से गुजरती ईर्ष्याएँ, द्वेष, उखाड़-पछाड़ों के आक्रामक सिलसिले। चिरगाँव से दिल्ली तक की यात्रा में किशोरी की अगली पीढ़ी की किशोरियों के पगचिन्ह हैं। स्त्री की स्वाभाविक जिजीविषा को कायम रखने वाला यह उपन्यास रचनाकार के रूप में रजनी की अलग पहचान बनाएगा।
किशोरी का आसमाँ
अचानक सुनाई पड़ा शोर। लगा, जैसे कहीं बादल फटा हो या फिर चिंघाड़ते
बादलों के बीच छुरी-सी चमचमाती बिजली औधें मुँह जमीन पर गिर पड़ी हो। कहीं
किसी ने सीधे सामने वाले के पेट में चाकू तो नहीं घोंप दिया ? आखिर ये
कहाँ से लगातार आ रही कैसी भयानक आवाजें हैं ? कहीं ये बंदूक की आवाज तो
नहीं ? सोचते ही हाथ-पाँव सुन्न पड़ गए और शरीर जैसे काठ का बुत बन गया।
उफ ! ये बवंडर तो पूरे घर में फैलता जा रहा है; लेकिन इतना शोरगुल सुनकर
भी यह कुत्ता क्यों नहीं भौंक पा रहा है ? बाईसाब के मन में लगातार ये
सवाल भगदड़ मचाने लगे। फिर सोचा, कहीं मेरे ही कान तो नहीं बज रहे ? लेकिन
तभी जोर-जोर से खड़खड़ाहट सुनाई पड़ी जैसे भारी-भरकम बूट पहने अंग्रेज
घोड़ा गाड़ी से उतरकर पक्की सड़क को रौंदने लगे हों। आवाजें थमने की बजाय
बढ़ती ही जा रही थीं।
‘हाय राम ! बेमौत मर गए अब तो...जे तौ डाकुअन की आवाजें हैं !’ सोचते ही वे घबरा उठीं। अगले ही पल घिनौची की दीवार पर तड़ातड़ पड़ रहे छर्रों की आवाज सुनकर डर के मारे उनकी घिग्घी बँध गई। ऐसा लगा जैसे साच्छात जमराज उनकी देह में से पिरान खेंचकर निकाल लिए जा रहे हों। ‘ओ मेरे भगवान ! बचाव हमें...मर गए अब तो..ओ मेरी देवी मइय्या..ओ मताई रे..’ अस्फुट आवाजें गले में फँसकर गों-गों करने लगीं। पूस की इस कड़कड़ाती ठंड में रजाई के भीतर सिकुड़कर गठरी बनी देह पत्थर में तब्दील होने लगी। तभी उन्हें बगल की चारपाई पर लेटे मुन्ना की याद आई जो देर तक पढ़ते-पढ़ते इस वक्त गहरी नींद में बेसुध पड़ा था। जाड़ों की इस बर्फानी रात में गाँव के सब लोग अपनी-अपनी रजाइयों में मुँह दाबे, आँखें मूँदे पड़े होंगे तभी उन्हें ये हाहाकार नहीं सुनाई पड़ रहा है, जबकि ऐन बगल में दागी जा रही गोलियों की आवाजें हमारे कान के परदे फाड़ने पर आमादा हैं। उधर किशोरी भीतर वाली कुठरिया में...
‘‘खोल, किवाड़े खोल...’’ दरवाजे पर पड़ी लात की एक जोरदार ठोकर और वे थर-थर काँपने लगीं, ‘‘ओ मताई रे...बचाइयों हमें...हाय राम...’’ बाईसाब की चीख सुनकर मुन्ना जाग पड़ा और ऐन उसी वक्त चरमराकर धड़ाम से गिर पड़ा। दरवाजा और वे तीनों सीधे मुन्ना पर झपट्टा मारने के लिए आगे बढ़े।
‘खबरदार, जो इस लड़के को हाथ लगाया..लेव..मार डारो हमें...कहकर वे मुन्ना के ऊपर औंधी गिर पड़ी।
बाईसाब की चीख-पुकार सुनकर किशोरी की रूह काँप गई और वह दौड़ी-भागी पहुँच सीधे बाई के पास। वहां का नजारा देखकर पति जयपाल की कही बातें दिमागी रील पर चरखी की तरह घूमने लगीं-कभी कोई चोरी-डकैती की घटना होबै तो पइसन कौ लोभ बिलकुल मत करियो। बस, जान बचाबे की सोचियो।’
‘‘तुमें जितेक पइसा-टका लैनै होय सो लै लो, लेकिन जा मौड़ा खों हाथ मत लगाव...किशोरी की दो टूक बात के वजन को नापने में उन्होंने पल-भर की देरी नहीं की, ‘‘चल निकाल अपना माल-टाल...कहाँ छिपाया है ?’’
आगे-आगे किशोरी और पीछे-पीछे तीनों लंबी-चौडी कद-काठी के मुस्टंडे। आँख-नाक को छोड़कर पूरा मुँह काले ढाटे से कसे हुए। सबके हाथों में थीं तनी पिस्तौलें और बड़े-बड़े जूतों को रौंदते वे घुस गए अंदर वाली कुठरिया में। डर, घबराहट और बेचैनी से काँपते किशोरी के हाथ में लालटेन हिल-डुल रही थी। इस समय किशोरी के मन में सिर्फ एक आश्वस्ति मजबूती दिए थी। हे मेरे प्रभु, ये लोग बस इनके बारे में कुछ न पूँछें। हे मेरे भगवान, मेरा सुहाग बचाए रखना, बाकी हमें कुछ नहीं चाहिए। ले जाएँ ये जितना चाहें उतना, हमें का करनै ?
छोटे-बड़े बक्सों, भारी बर्तनों, डब्बों कनस्तरों और अलमारियों के भीतर जतन से छुपाए गहनों को वह जल्दी-जल्दी निकालती जाती... इनकी चकाचौंध के सामने ये कुत्ते ‘इनके’ बारे में पूछना भूल जाएँगे, ऐसा सोचती किशोरी एक-एक करके बक्सों को खाली करके गहने निकालती जाती, जिसे वे कौओं की तरह चोंच में दाब लेते। जब बड़ी बेटी के लिए अभी हाल में बनवाए छोटे-छोटे टॉप्स, नथ, गले की ताबीज और कड़े निकालने की सोची तो भीतर हड़कंप मच गया। कितने शौक से पहनकर मटकती-चटकती फिरकी-सी डोलती थी बच्ची। अभी एकाध बार ही पहन पाई होगी इसे वह...
‘‘जल्दी निकाल..निकाल..क्या सोच रही है?’’ जब देने को कुछ नहीं बचा तो दोनों हाथ जोड़कर वह मंदिर के सामने जोर-जोर से रोने लगी, ‘‘अब हमाय पास कछू नईं बचौ, चाहो तो ऐन हमाई जान लै लो।’’
एक ने दूसरे को देखा, फिर किशोरी के गले में लटकती मटरमाला को खींचते हुए सवाल दागा, ‘‘इसे क्यों छुपा रही है ? निकाल इसे भी !’’
हुकुम बजाती किशोरी ने उसे फटाफट उतार दिया और डर के मारे कानों के बुंदे अपने आप निकालकर थमा दिए उन्हें।
इतना सोना-चांदी देखकर तो वे वाकई बौरा गए और बिजली-सी फुर्ती और तेजी से दोनों हाथों से सामान बटोरते-बटोरते अचानक चल पड़े। जो चीज चलते-चलते गिर जाती उसे पीछे वाला बटोर लेता और फिर आगे वाला वेग से दौड़ते हुए निकल भागा। उसके बाद था बीच वाला, फिर था पीछे वाला, जिसका चेहरा किशोरी को जाना-पहचाना सा लगा। ‘कौन हो सकता है ये ? चलो, जान बची लाखौं पाए’। सोचती-सकपकाती किशोरी सबसे पहले पति जयपाल के पास ऊपर वाली कुठरिया की तरफ भागी-‘हे मेरे सच्चे भगवान्, तूने मेरी लाज राखी वरना आज हम कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं बचे थे। सास-ससुर कच्चा चबा डालते हमें और ऊपर से दुनिया-भर के ताने अलग सुनने पड़ते-और राखो गाँव में ! जा देहरी पर कलंक कौ ऐसौ टीका लगतौ जिसे जिंदगी-भर नहीं छुड़ा पाती।’ बड़े-बड़े डग भरती किशोरी ने जब पति की खाली चारपाई देखी, तो राहत की सांस ली-‘चलो, अच्छा रहा, कहीं भाग गए। कैसे भी जान बची रई। बस्स...सोचती किशोरी पागलों की तरह उन्हें ढूँढ़ने लगी। हड़बड़ाती किशोरी ने दोनों छतों और वहाँ बने तीनों कमरों को छान मारा, लेकिन जब वे कहीं नहीं मिले तो वह वहीं से खुशी के मारे चिल्ला पड़ी, बाई, जे तौ भाग गए कितऊ ! इतै हैई नईंय्या..’
‘हाय राम ! ओ मताई रे..मार डालौ दुष्टन नै हमें...खा लय पिरान !’ पलक झपकते एक भयानक चीख रात के सन्नाटे को भेदती हुई गाँव-भर में गूँज उठी। सीढ़ियों से नीचे उतरने के पहले जैसे ही बारजे से उन्होंने नीचे की तरफ झाँका, तो वहाँ खून से लथपथ नाली में पड़ी थी जयपाल की देह। उनका चेहरा बुरी तरह बिगड़ा हुआ था। उनकी हालत देखकर उनके हाथ-पाँव फूल गए, आँखें पथरा गईं और शरीर अचानक लोहे का बन गया। किसी को कुछ भी नहीं सूझ रहा था।
क्रंदन करती बाईसाब छत पर खड़े होकर ब्रिजनंदन को टेरने लगीं और आँखें मीड़ता वह तुरंत छत लाँघकर सीधे किशोरी की छत पर कूद पड़ा। ब्रिजनंदन, किशोरी और बाईसाब ने मिलकर जयपाल को बैलगाड़ी में लिटाया और चार कोस दूर के कस्बे के डॉक्टर को दिखाने के लिए तुरंत चल पड़ी किशोरी। अभी जयपाल की साँसें चल रही थी। बिलखती बाईसाब की आवाजें पिछिया रही थीं, ‘‘झटपट चलाव ब्रिजनंदन..सीधे डॉक्टर सहारिया या विस्वारी के घरै जानै। बापू के उनसे पुराने संबंध हैं, सो कौनऊ भी टैम देख लैहै...जल्दी पहुँचो..जल्दी से जल्दी..
ब्रिजनंदन की माँ ने पल-भर में यह खबर पूरे गाँव में फैला दी। उस वक्त रात के दो बज रहे थे, जब बाईसाब सीधे देवी माँ के मंदिर में खून से भीगी धोती को निचोड़ते हुए बिफरने लगीं, ओ मेरी मइय्या, तुमाय ऊपर छोड़ दव हमनै सब कछू। जान बचाव ओ मइय्या रे..’ कहकर वे देवी के सामने उलटी लेटकर फफक-फफककर रो पड़ीं। ब्रिजनंदन की अम्मा जबरदस्ती उनका हाथ पकड़कर घसीटते हुए घर तक खींच लाई। गाँव के लोग एक-एक करके इकट्ठे होने लगे।
अमावस वाली पूस की रात में कोहरे की मोटी-मोटी चट्टानें बार-बार रास्ता रोककर धुंध का चँदोवा तान देतीं। किशोरी के भीतर सिर्फ एक ही धुन सवार थी-किसी तरह उड़कर इन्हें बड़े अस्पताल में भर्ती कराया जाए। बैलगाड़ी जब मुख्य सड़क पर चलने लगी तो रोशनी फेंकते ट्रक वाले दिखाई दिए। बदहवास किशोरी सड़क के बीचबीचों खड़ी होकर गिड़गिड़ाने लगी, भइया, जितना माँगोगे, उतना पइसा देंगे, मगर आदमी की जान बचा लो !’’ वह अकबकाकर विनती करने लगती, लेकिन वहाँ से रूखा जवाब मिलता, ‘‘ऐसे केस मैं नहीं ले सकता। खामखाँ पुलिस-थाना के झमेलों में कौन पड़े ? तमाम लफड़े होते हैं मर्डर केस के।’’
घबराई किशोरी बार-बार पति के धड़कते सीने पर हाथ फेरने लगती तो कभी नब्ज टटोलने लगती। लेकिन कुछ भी नहीं सूझ रहा था कि क्या करें ? कैसे हवा की रफ्तार से अस्पताल पहुँच जाए ? आशा की हिलगी डोर थामे वह भगवान की टेर लगाने लगी। एक-एक लमहा काटना हिमालय की चोटी पर चढ़ने जैसा भारी जान पड़ता। जैसे ही कोई ट्रक वाला दिखाई पड़ता, वह फिर से गुहार लगाने दौड़ पड़ती, लेकिन मुझे टैम पर पहुँचना है...मेरा मालिक बिगड़ेगा, नहीं...नहीं..हम नहीं ले जा सकते इन्हें। कितना कठोर कलेजा है इनका,..एक लहूलुहान आदमी को देखकर जरा भी रहम नहीं आता पापियों को !’ वह बौखलाई शेरनी की तरह भड़क पड़ती। पहाड़ जैसे समय को बमुश्किल खींचता ब्रिजनंदन अभी सुरतानपुरा तक ही पहुंच पाया कि जयपाल को एक जोरदार हिचकी आई-‘ब्रिजनंदन..। किशोरी के मुँह से एक मर्मभेदी चीख निकली और वह उसी वक्त बेहोश हो गई।
आधा घंटा बैलगाड़ी खींचता ब्रिजनंदन सीधे किशोरी की ससुराल पहुँचा और दरवाजा थपथपाते हुए जोर-जोर से चिल्लाने लगा। हड़बड़ाए पिताजी दौड़कर डॉक्टर को बुला लाए। डॉक्टर ने उनकी साँसें और नब्ज टटोलने की कोशिश की..फिर गर्दन लटकाकर चुप्पी साध ली। तभी जयपाल की माँ की चीख-पुकार से सारा मुहल्ला जग गया और चारों तरफ फिर वही शोर-शराबा, वही करुण क्रंदन की आवाजें गूँजने लगीं।
बैलगाड़ी में बेहोश पड़ी किशोरी को भीड़ में से किसने उठाकर कहाँ लिटा दिया, कोई नहीं जानता। एक दिन, दो दिन, फिर इसी तरह तीन-चार दिन तक मुन्ना चम्मच से पानी की चंद बूँदें उसके मुँह में डालता रहा, लेकिन उसकी तंद्रा नहीं टूटी। उसकी ऐसी हालत देखकर वह बुक्का फाड़कर रो पड़ता फिर उसकी बंद पलकों को खोलकर देखता जो फिर से मुँद जातीं तो वह दौड़ा-भागा डॉक्टर के पास पहुँच जाता। वे कहते-‘नाक में प्याज का रस डालो, बेहोशी जरूर टूटेगी। वह खुद अपने हाथ से प्याज कुचलकर रस निकालकर लाता और जैसे ही डालता, किशोरी की तंद्रा पल-भर के लिए टूटती। मुन्ना के हिलाने-डुलाने पर उसे हलका-सा होश आता, फिर काली रात का परदा आँखों के सामने खिंच जाता, जिसके आर-पार उसे कुछ नहीं सूझता था।
जो भी इस खबर को सुनता, अफसोस जताने लगता। कस्बे-भर में फैली थीं पुलिस की मोटरगाड़ियां। उनकी पूछताछ का सिलसिला थमता नजर नहीं आता था। सबकी जुबान पर एक जैसे सवाल बिछे रहते-‘किसने मारा ? वे तो छत पर सोते थे ! सो पता ही नहीं चल पाया कि कैसे मारा ? हाय राम, गऊ सरीखे आदमी का कत्ल कर डाला हत्यारों ने।’
कस्बे में कई दिनों तक पुलिस का डेरा तना रहा और छानबीन चलती रही। कहीं से कोई सुराग नहीं मिल पा रहा था। सिर्फ कयास लगाए जाते रहे। कोई कहता, मुहल्ले वाले थे, तो कोई कहता बापू की पुरानी रंजिश का बदला निकाला गाँववारिन नै।
जयपाल की माँ के सीने में धधकती आग बारूद बनकर सामने वाले को झुलसा डालती, ‘‘बियाह के बीस बरस बाद पैदा भय ते जे लला ! कितेक पूजा-पाठ के बाद वरदान मिलौ तौ पुत्र होबै कौ..लेकिन नासपिटन नै लील लय पिरान। हाय मोरा बेटा..कितै चले गए तुम ? कल तौ हमाय हाथ की रोटी खाकै गए ते और हमसै कै गय ते कै चश्मा बनवानै तुमाय। अबै दस दिना पहले तौ आँख कौ अपरेसन कराव तौ। का दिखाबे के लानै कराव तौ तुमने अपरेसन ?
उनके सामने गुजरते वक्त की यादों की पिटारी खुलने लगती, फिर वे नफरत-भरी निगाहों से किशोरी को देखकर कोसने लगतीं, जानै खा लय मेरे पुत्तर के पिरान...जाकी बजह सै भव जौ सब ...जई है समस्या की जड़...वे पागलों की तरह बड़बड़ाने लगतीं। उनके तड़पाने वाले बोल सुनकर कलेजा दहलने लगता।
‘‘बीहड़ में गए ते बसबे लला। खा लव ठठरी बंधे गाँववारिन नै...गाँव खों चमकदार बनाबे निकरे ते पुत्तर ? कोउ की बात नई सुनी और जा बुढ़ापे में ऐसौ भयानक कष्ट दै गय लला। पिता भगवती बाबू को देखकर लगता था जैसे उनकी आँखों में कोई मशाल लगातार जल रही हो। जो भी उस मशाल के सामने पड़ता, लपटें दुगने वेग से ऊपर सामने वाले को तपाने लगतीं।
कस्बे की हर आँख में समाया था क्षोभ, आक्रोश, अफसोस और सहानुभूति। पति के गुजर जाने के बाद अकेली औरत के लिए जिंदगी कितनी बेमायने लगने लगती है ! कितने बड़े दु:ख का पहाड़ टूटा है किशोरी के ऊपर ! आते जाते लोग तमाम तरह की बातें समझाने बैठ जाते, जिसे गर्दन झुकाए मौनी बाबा की तरह सुनती रहती किशोरी, लेकिन मुँह से एक बोल नहीं फूटता। अपने भीतर के कुएँ में डुबकी लगाती किशोरी को किसी की भी सूरत देखना या बातें करना नहीं सुहाता था। यदि कोई हिला-डुलाकर कुएँ में पत्थर फेंकता तो उसके भीतर बसी पति की तस्वीर कहीं हिल-डुल न जाए, इस डर से वह बुत बनी सुबह से रात तक पैर सिकोडे़ बैठी रहती।
आज पूरे दस दिन हो गए इस नरककुंड में आए हुए। पल-भर के लिए कभी पलकें मुँदतीं तो नींद की जगह वहाँ बिछे रहते कँटीले सवाल और आँखें खोलो तो चारों तरफ दिखाई देती विकराल और बीभत्स आकृतियाँ, जो उसकी रूह को बार-बार डरा देंती। जितनी ताकत से वह इन्हें फटकारकर कोड़े मारकर परे झटकना चाहती, वे दुगुनी ताकत से मुँह बाए खड़े हो जाते। इनसे बचकर कहाँ भागेगी वो ?
अपनी जिंदगी के रेशे-रेशे पकड़कर वह आहिस्ता से सालों पुरानी घटनाओं पर फिर से चहलकदमी करना चाहती, लेकिन सिलसिलेवार कुछ भी याद क्यों नहीं कर पा रही ? विरगुवाँ में बिताए वे दिन, वे घटनाएँ और वैसा दौर क्या कभी भुला सकती है वह ? कितने तूफान गुजरते रहे सीने पर से ? कितनी तरह की रगड़ें खाकर भी साबुत बची रही यह देह, जिसने न कभी बेफिक्री से बचपन में खेला-खाया, न ठीक से जवानी का आस्वाद चखा बल्कि कितनी बार तो उसे अपना बसा-बसाया घरौंदा उजाड़ना पड़ा-यह भी कहाँ तक याद रखे वह ? गत जीवन के तमाम अक्स आँखों के भीतर फिर से आकार लेने के लिए अकुलाने लगे। देह के भीतर का लहू तो जम गया, लेकिन देह को टटोलती उन आँखों का आमंत्रण भला कैसे भूल जाए वह ? तमाम बातें अभी भी मन-आँगन में कितने इत्मीनान से किसी पालतू जीव की तरह सिर टिकाए बैठी रहतीं। वे दिन, वे रातें, वे जगहें, वे लोग, वे घटनाएँ और उन किस्सों को कोई भी भला कैसे भूल सकता है ?
आचार्य हरिप्रसाद उर्फ पंडितजी का खूब बोलबाला था उस गाँव में। सब जगह उनके ही नाम का सिक्का चलता था। गाँव के आखिरी छोर पर बने उस इकलौते प्राइमरी स्कूल के हैडमास्टर थे वो। जाति के ब्राह्मण न होने के बावजूद भुनसारे से सोने तक उन्हें देखते ही सबकी जुबान पर यही बोल बिछोहते-‘पाय लागौ पंडिज्जी, जै राम जी की मराज, गुरु जी प्रणाम ! आधुनिक प्रगति के नाम पर जो भी नई लहर कस्बे में आती देर-सवेरे में भी उसकी सुगबुगाहट सुनाई देने लगती, जिसका श्रेय जाता पंडिज्जी को। मसलन-जब से देश में भारतीय जीवन बीमा निगम ने घुसपैठ की तो पंडिज्जी ने पहल करके इस काम को चटपट अपने हाथों में ले लिया। गाँव में डाकखाना कहाँ खोला जाए ? इस समस्या के निदान के लिए पंडिज्जी ने झट्ट से अपने घर का बरामदा हंसी-खुशी खाली कर दिया। गाँव में बाहर से कोई भी नई रामलीला मंडली वाले आएँ या नौटंकी वाले, कैसी भी नई गतिविधि का सूत्रपात होता पंडिज्जी के हाथों। यानी हर नई खबर और नई योजना को अमल में लाने का बीड़ा उठाते पंडिज्जी।
इस प्राइमरी स्कूल को मिडिल तक खींच लाने की पहल भी पंडिज्जी ने ही की। उनकी जद्दोजहद और जी-तोड़ मेहनत से उनके स्कूल का नाम जल्दी ही चमक गया। गाँव से लगभग एक-डेढ़ कोस तक पैदल सफर तय करना पड़ता था बच्चों को। स्कूल जाने का कच्चा और ऊबड़-खाबड़ रास्ता जगह-जगह बने पानी के गड्ढों से होकर निकलता था। एक हाथ में पट्टी और पीठ पर बस्ता लादे बच्चों के पैरों में अकसर काँटे चुभ जाते, सो वे थोड़ी देर रुककर अपने पैरों से काँटे निकाल दुबारा दौड़ लगा देते स्कूल की तरफ। कभी वे बीच रास्ते में लगे कैथा के पेड़ को हसरत-भरी निगाहों से ताकते हुए थोड़ी देर तक यूँ ही बेमतलब खड़े रहते तो कभी इमली के पेड़ तले ठुमकते हुए थमथमाते। कुछ बच्चे नीचे पड़ी कच्ची-पक्की इमलियों को उठाकर खाने लगते तो कुछ उन्हें जेब में ठूँस लेते, फिर बतख की तरह फुदकते कदमों से आगे चलकर दाएँ-बाएँ लगे बेशर्म के पौधों को तोड़ने लगते, फिर उसकी एक-एक डंडी को हवा में झंडे की तरह लहराते हुए एक बार फिर स्कूल की तरफ दौड़ लगा जाते। जब वे हाँफते हुए सुस्ताने लगते तब तक स्कूल की बिल्डिंग दिखाई देने लगती। खेलते-खेलते इस तरह स्कूल पहुँचेने का उनका यह रोज नियम था।
स्कूल के हैडमास्टर यानी पंडिज्जी की स्थायी पहचान थी रोबदार कड़क आवाज, दाएँ हाथ में छड़ी, बाएँ में छाता, आँखों पर गोल फ्रेम का चश्मा, सिर पर सफेद गांधी टोपी और वैसा ही झक सफेद मलमल वाला धोती-कुर्ता।
उनके अलावा दो और मास्टर पढ़ाते थे, लेकिन वे भी पंडिज्जी की एक ऊँची आवाज सुनकर चुप्पी साध लेते। उनके आने पर शुरू होती बच्चों की पढ़ाई। वे कभी जोर-जोर से पहाड़ा रटने लगते तो कभी गर्दन नवाकर पट्टी पर इमला की इबारतें।
‘हाय राम ! बेमौत मर गए अब तो...जे तौ डाकुअन की आवाजें हैं !’ सोचते ही वे घबरा उठीं। अगले ही पल घिनौची की दीवार पर तड़ातड़ पड़ रहे छर्रों की आवाज सुनकर डर के मारे उनकी घिग्घी बँध गई। ऐसा लगा जैसे साच्छात जमराज उनकी देह में से पिरान खेंचकर निकाल लिए जा रहे हों। ‘ओ मेरे भगवान ! बचाव हमें...मर गए अब तो..ओ मेरी देवी मइय्या..ओ मताई रे..’ अस्फुट आवाजें गले में फँसकर गों-गों करने लगीं। पूस की इस कड़कड़ाती ठंड में रजाई के भीतर सिकुड़कर गठरी बनी देह पत्थर में तब्दील होने लगी। तभी उन्हें बगल की चारपाई पर लेटे मुन्ना की याद आई जो देर तक पढ़ते-पढ़ते इस वक्त गहरी नींद में बेसुध पड़ा था। जाड़ों की इस बर्फानी रात में गाँव के सब लोग अपनी-अपनी रजाइयों में मुँह दाबे, आँखें मूँदे पड़े होंगे तभी उन्हें ये हाहाकार नहीं सुनाई पड़ रहा है, जबकि ऐन बगल में दागी जा रही गोलियों की आवाजें हमारे कान के परदे फाड़ने पर आमादा हैं। उधर किशोरी भीतर वाली कुठरिया में...
‘‘खोल, किवाड़े खोल...’’ दरवाजे पर पड़ी लात की एक जोरदार ठोकर और वे थर-थर काँपने लगीं, ‘‘ओ मताई रे...बचाइयों हमें...हाय राम...’’ बाईसाब की चीख सुनकर मुन्ना जाग पड़ा और ऐन उसी वक्त चरमराकर धड़ाम से गिर पड़ा। दरवाजा और वे तीनों सीधे मुन्ना पर झपट्टा मारने के लिए आगे बढ़े।
‘खबरदार, जो इस लड़के को हाथ लगाया..लेव..मार डारो हमें...कहकर वे मुन्ना के ऊपर औंधी गिर पड़ी।
बाईसाब की चीख-पुकार सुनकर किशोरी की रूह काँप गई और वह दौड़ी-भागी पहुँच सीधे बाई के पास। वहां का नजारा देखकर पति जयपाल की कही बातें दिमागी रील पर चरखी की तरह घूमने लगीं-कभी कोई चोरी-डकैती की घटना होबै तो पइसन कौ लोभ बिलकुल मत करियो। बस, जान बचाबे की सोचियो।’
‘‘तुमें जितेक पइसा-टका लैनै होय सो लै लो, लेकिन जा मौड़ा खों हाथ मत लगाव...किशोरी की दो टूक बात के वजन को नापने में उन्होंने पल-भर की देरी नहीं की, ‘‘चल निकाल अपना माल-टाल...कहाँ छिपाया है ?’’
आगे-आगे किशोरी और पीछे-पीछे तीनों लंबी-चौडी कद-काठी के मुस्टंडे। आँख-नाक को छोड़कर पूरा मुँह काले ढाटे से कसे हुए। सबके हाथों में थीं तनी पिस्तौलें और बड़े-बड़े जूतों को रौंदते वे घुस गए अंदर वाली कुठरिया में। डर, घबराहट और बेचैनी से काँपते किशोरी के हाथ में लालटेन हिल-डुल रही थी। इस समय किशोरी के मन में सिर्फ एक आश्वस्ति मजबूती दिए थी। हे मेरे प्रभु, ये लोग बस इनके बारे में कुछ न पूँछें। हे मेरे भगवान, मेरा सुहाग बचाए रखना, बाकी हमें कुछ नहीं चाहिए। ले जाएँ ये जितना चाहें उतना, हमें का करनै ?
छोटे-बड़े बक्सों, भारी बर्तनों, डब्बों कनस्तरों और अलमारियों के भीतर जतन से छुपाए गहनों को वह जल्दी-जल्दी निकालती जाती... इनकी चकाचौंध के सामने ये कुत्ते ‘इनके’ बारे में पूछना भूल जाएँगे, ऐसा सोचती किशोरी एक-एक करके बक्सों को खाली करके गहने निकालती जाती, जिसे वे कौओं की तरह चोंच में दाब लेते। जब बड़ी बेटी के लिए अभी हाल में बनवाए छोटे-छोटे टॉप्स, नथ, गले की ताबीज और कड़े निकालने की सोची तो भीतर हड़कंप मच गया। कितने शौक से पहनकर मटकती-चटकती फिरकी-सी डोलती थी बच्ची। अभी एकाध बार ही पहन पाई होगी इसे वह...
‘‘जल्दी निकाल..निकाल..क्या सोच रही है?’’ जब देने को कुछ नहीं बचा तो दोनों हाथ जोड़कर वह मंदिर के सामने जोर-जोर से रोने लगी, ‘‘अब हमाय पास कछू नईं बचौ, चाहो तो ऐन हमाई जान लै लो।’’
एक ने दूसरे को देखा, फिर किशोरी के गले में लटकती मटरमाला को खींचते हुए सवाल दागा, ‘‘इसे क्यों छुपा रही है ? निकाल इसे भी !’’
हुकुम बजाती किशोरी ने उसे फटाफट उतार दिया और डर के मारे कानों के बुंदे अपने आप निकालकर थमा दिए उन्हें।
इतना सोना-चांदी देखकर तो वे वाकई बौरा गए और बिजली-सी फुर्ती और तेजी से दोनों हाथों से सामान बटोरते-बटोरते अचानक चल पड़े। जो चीज चलते-चलते गिर जाती उसे पीछे वाला बटोर लेता और फिर आगे वाला वेग से दौड़ते हुए निकल भागा। उसके बाद था बीच वाला, फिर था पीछे वाला, जिसका चेहरा किशोरी को जाना-पहचाना सा लगा। ‘कौन हो सकता है ये ? चलो, जान बची लाखौं पाए’। सोचती-सकपकाती किशोरी सबसे पहले पति जयपाल के पास ऊपर वाली कुठरिया की तरफ भागी-‘हे मेरे सच्चे भगवान्, तूने मेरी लाज राखी वरना आज हम कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं बचे थे। सास-ससुर कच्चा चबा डालते हमें और ऊपर से दुनिया-भर के ताने अलग सुनने पड़ते-और राखो गाँव में ! जा देहरी पर कलंक कौ ऐसौ टीका लगतौ जिसे जिंदगी-भर नहीं छुड़ा पाती।’ बड़े-बड़े डग भरती किशोरी ने जब पति की खाली चारपाई देखी, तो राहत की सांस ली-‘चलो, अच्छा रहा, कहीं भाग गए। कैसे भी जान बची रई। बस्स...सोचती किशोरी पागलों की तरह उन्हें ढूँढ़ने लगी। हड़बड़ाती किशोरी ने दोनों छतों और वहाँ बने तीनों कमरों को छान मारा, लेकिन जब वे कहीं नहीं मिले तो वह वहीं से खुशी के मारे चिल्ला पड़ी, बाई, जे तौ भाग गए कितऊ ! इतै हैई नईंय्या..’
‘हाय राम ! ओ मताई रे..मार डालौ दुष्टन नै हमें...खा लय पिरान !’ पलक झपकते एक भयानक चीख रात के सन्नाटे को भेदती हुई गाँव-भर में गूँज उठी। सीढ़ियों से नीचे उतरने के पहले जैसे ही बारजे से उन्होंने नीचे की तरफ झाँका, तो वहाँ खून से लथपथ नाली में पड़ी थी जयपाल की देह। उनका चेहरा बुरी तरह बिगड़ा हुआ था। उनकी हालत देखकर उनके हाथ-पाँव फूल गए, आँखें पथरा गईं और शरीर अचानक लोहे का बन गया। किसी को कुछ भी नहीं सूझ रहा था।
क्रंदन करती बाईसाब छत पर खड़े होकर ब्रिजनंदन को टेरने लगीं और आँखें मीड़ता वह तुरंत छत लाँघकर सीधे किशोरी की छत पर कूद पड़ा। ब्रिजनंदन, किशोरी और बाईसाब ने मिलकर जयपाल को बैलगाड़ी में लिटाया और चार कोस दूर के कस्बे के डॉक्टर को दिखाने के लिए तुरंत चल पड़ी किशोरी। अभी जयपाल की साँसें चल रही थी। बिलखती बाईसाब की आवाजें पिछिया रही थीं, ‘‘झटपट चलाव ब्रिजनंदन..सीधे डॉक्टर सहारिया या विस्वारी के घरै जानै। बापू के उनसे पुराने संबंध हैं, सो कौनऊ भी टैम देख लैहै...जल्दी पहुँचो..जल्दी से जल्दी..
ब्रिजनंदन की माँ ने पल-भर में यह खबर पूरे गाँव में फैला दी। उस वक्त रात के दो बज रहे थे, जब बाईसाब सीधे देवी माँ के मंदिर में खून से भीगी धोती को निचोड़ते हुए बिफरने लगीं, ओ मेरी मइय्या, तुमाय ऊपर छोड़ दव हमनै सब कछू। जान बचाव ओ मइय्या रे..’ कहकर वे देवी के सामने उलटी लेटकर फफक-फफककर रो पड़ीं। ब्रिजनंदन की अम्मा जबरदस्ती उनका हाथ पकड़कर घसीटते हुए घर तक खींच लाई। गाँव के लोग एक-एक करके इकट्ठे होने लगे।
अमावस वाली पूस की रात में कोहरे की मोटी-मोटी चट्टानें बार-बार रास्ता रोककर धुंध का चँदोवा तान देतीं। किशोरी के भीतर सिर्फ एक ही धुन सवार थी-किसी तरह उड़कर इन्हें बड़े अस्पताल में भर्ती कराया जाए। बैलगाड़ी जब मुख्य सड़क पर चलने लगी तो रोशनी फेंकते ट्रक वाले दिखाई दिए। बदहवास किशोरी सड़क के बीचबीचों खड़ी होकर गिड़गिड़ाने लगी, भइया, जितना माँगोगे, उतना पइसा देंगे, मगर आदमी की जान बचा लो !’’ वह अकबकाकर विनती करने लगती, लेकिन वहाँ से रूखा जवाब मिलता, ‘‘ऐसे केस मैं नहीं ले सकता। खामखाँ पुलिस-थाना के झमेलों में कौन पड़े ? तमाम लफड़े होते हैं मर्डर केस के।’’
घबराई किशोरी बार-बार पति के धड़कते सीने पर हाथ फेरने लगती तो कभी नब्ज टटोलने लगती। लेकिन कुछ भी नहीं सूझ रहा था कि क्या करें ? कैसे हवा की रफ्तार से अस्पताल पहुँच जाए ? आशा की हिलगी डोर थामे वह भगवान की टेर लगाने लगी। एक-एक लमहा काटना हिमालय की चोटी पर चढ़ने जैसा भारी जान पड़ता। जैसे ही कोई ट्रक वाला दिखाई पड़ता, वह फिर से गुहार लगाने दौड़ पड़ती, लेकिन मुझे टैम पर पहुँचना है...मेरा मालिक बिगड़ेगा, नहीं...नहीं..हम नहीं ले जा सकते इन्हें। कितना कठोर कलेजा है इनका,..एक लहूलुहान आदमी को देखकर जरा भी रहम नहीं आता पापियों को !’ वह बौखलाई शेरनी की तरह भड़क पड़ती। पहाड़ जैसे समय को बमुश्किल खींचता ब्रिजनंदन अभी सुरतानपुरा तक ही पहुंच पाया कि जयपाल को एक जोरदार हिचकी आई-‘ब्रिजनंदन..। किशोरी के मुँह से एक मर्मभेदी चीख निकली और वह उसी वक्त बेहोश हो गई।
आधा घंटा बैलगाड़ी खींचता ब्रिजनंदन सीधे किशोरी की ससुराल पहुँचा और दरवाजा थपथपाते हुए जोर-जोर से चिल्लाने लगा। हड़बड़ाए पिताजी दौड़कर डॉक्टर को बुला लाए। डॉक्टर ने उनकी साँसें और नब्ज टटोलने की कोशिश की..फिर गर्दन लटकाकर चुप्पी साध ली। तभी जयपाल की माँ की चीख-पुकार से सारा मुहल्ला जग गया और चारों तरफ फिर वही शोर-शराबा, वही करुण क्रंदन की आवाजें गूँजने लगीं।
बैलगाड़ी में बेहोश पड़ी किशोरी को भीड़ में से किसने उठाकर कहाँ लिटा दिया, कोई नहीं जानता। एक दिन, दो दिन, फिर इसी तरह तीन-चार दिन तक मुन्ना चम्मच से पानी की चंद बूँदें उसके मुँह में डालता रहा, लेकिन उसकी तंद्रा नहीं टूटी। उसकी ऐसी हालत देखकर वह बुक्का फाड़कर रो पड़ता फिर उसकी बंद पलकों को खोलकर देखता जो फिर से मुँद जातीं तो वह दौड़ा-भागा डॉक्टर के पास पहुँच जाता। वे कहते-‘नाक में प्याज का रस डालो, बेहोशी जरूर टूटेगी। वह खुद अपने हाथ से प्याज कुचलकर रस निकालकर लाता और जैसे ही डालता, किशोरी की तंद्रा पल-भर के लिए टूटती। मुन्ना के हिलाने-डुलाने पर उसे हलका-सा होश आता, फिर काली रात का परदा आँखों के सामने खिंच जाता, जिसके आर-पार उसे कुछ नहीं सूझता था।
जो भी इस खबर को सुनता, अफसोस जताने लगता। कस्बे-भर में फैली थीं पुलिस की मोटरगाड़ियां। उनकी पूछताछ का सिलसिला थमता नजर नहीं आता था। सबकी जुबान पर एक जैसे सवाल बिछे रहते-‘किसने मारा ? वे तो छत पर सोते थे ! सो पता ही नहीं चल पाया कि कैसे मारा ? हाय राम, गऊ सरीखे आदमी का कत्ल कर डाला हत्यारों ने।’
कस्बे में कई दिनों तक पुलिस का डेरा तना रहा और छानबीन चलती रही। कहीं से कोई सुराग नहीं मिल पा रहा था। सिर्फ कयास लगाए जाते रहे। कोई कहता, मुहल्ले वाले थे, तो कोई कहता बापू की पुरानी रंजिश का बदला निकाला गाँववारिन नै।
जयपाल की माँ के सीने में धधकती आग बारूद बनकर सामने वाले को झुलसा डालती, ‘‘बियाह के बीस बरस बाद पैदा भय ते जे लला ! कितेक पूजा-पाठ के बाद वरदान मिलौ तौ पुत्र होबै कौ..लेकिन नासपिटन नै लील लय पिरान। हाय मोरा बेटा..कितै चले गए तुम ? कल तौ हमाय हाथ की रोटी खाकै गए ते और हमसै कै गय ते कै चश्मा बनवानै तुमाय। अबै दस दिना पहले तौ आँख कौ अपरेसन कराव तौ। का दिखाबे के लानै कराव तौ तुमने अपरेसन ?
उनके सामने गुजरते वक्त की यादों की पिटारी खुलने लगती, फिर वे नफरत-भरी निगाहों से किशोरी को देखकर कोसने लगतीं, जानै खा लय मेरे पुत्तर के पिरान...जाकी बजह सै भव जौ सब ...जई है समस्या की जड़...वे पागलों की तरह बड़बड़ाने लगतीं। उनके तड़पाने वाले बोल सुनकर कलेजा दहलने लगता।
‘‘बीहड़ में गए ते बसबे लला। खा लव ठठरी बंधे गाँववारिन नै...गाँव खों चमकदार बनाबे निकरे ते पुत्तर ? कोउ की बात नई सुनी और जा बुढ़ापे में ऐसौ भयानक कष्ट दै गय लला। पिता भगवती बाबू को देखकर लगता था जैसे उनकी आँखों में कोई मशाल लगातार जल रही हो। जो भी उस मशाल के सामने पड़ता, लपटें दुगने वेग से ऊपर सामने वाले को तपाने लगतीं।
कस्बे की हर आँख में समाया था क्षोभ, आक्रोश, अफसोस और सहानुभूति। पति के गुजर जाने के बाद अकेली औरत के लिए जिंदगी कितनी बेमायने लगने लगती है ! कितने बड़े दु:ख का पहाड़ टूटा है किशोरी के ऊपर ! आते जाते लोग तमाम तरह की बातें समझाने बैठ जाते, जिसे गर्दन झुकाए मौनी बाबा की तरह सुनती रहती किशोरी, लेकिन मुँह से एक बोल नहीं फूटता। अपने भीतर के कुएँ में डुबकी लगाती किशोरी को किसी की भी सूरत देखना या बातें करना नहीं सुहाता था। यदि कोई हिला-डुलाकर कुएँ में पत्थर फेंकता तो उसके भीतर बसी पति की तस्वीर कहीं हिल-डुल न जाए, इस डर से वह बुत बनी सुबह से रात तक पैर सिकोडे़ बैठी रहती।
आज पूरे दस दिन हो गए इस नरककुंड में आए हुए। पल-भर के लिए कभी पलकें मुँदतीं तो नींद की जगह वहाँ बिछे रहते कँटीले सवाल और आँखें खोलो तो चारों तरफ दिखाई देती विकराल और बीभत्स आकृतियाँ, जो उसकी रूह को बार-बार डरा देंती। जितनी ताकत से वह इन्हें फटकारकर कोड़े मारकर परे झटकना चाहती, वे दुगुनी ताकत से मुँह बाए खड़े हो जाते। इनसे बचकर कहाँ भागेगी वो ?
अपनी जिंदगी के रेशे-रेशे पकड़कर वह आहिस्ता से सालों पुरानी घटनाओं पर फिर से चहलकदमी करना चाहती, लेकिन सिलसिलेवार कुछ भी याद क्यों नहीं कर पा रही ? विरगुवाँ में बिताए वे दिन, वे घटनाएँ और वैसा दौर क्या कभी भुला सकती है वह ? कितने तूफान गुजरते रहे सीने पर से ? कितनी तरह की रगड़ें खाकर भी साबुत बची रही यह देह, जिसने न कभी बेफिक्री से बचपन में खेला-खाया, न ठीक से जवानी का आस्वाद चखा बल्कि कितनी बार तो उसे अपना बसा-बसाया घरौंदा उजाड़ना पड़ा-यह भी कहाँ तक याद रखे वह ? गत जीवन के तमाम अक्स आँखों के भीतर फिर से आकार लेने के लिए अकुलाने लगे। देह के भीतर का लहू तो जम गया, लेकिन देह को टटोलती उन आँखों का आमंत्रण भला कैसे भूल जाए वह ? तमाम बातें अभी भी मन-आँगन में कितने इत्मीनान से किसी पालतू जीव की तरह सिर टिकाए बैठी रहतीं। वे दिन, वे रातें, वे जगहें, वे लोग, वे घटनाएँ और उन किस्सों को कोई भी भला कैसे भूल सकता है ?
आचार्य हरिप्रसाद उर्फ पंडितजी का खूब बोलबाला था उस गाँव में। सब जगह उनके ही नाम का सिक्का चलता था। गाँव के आखिरी छोर पर बने उस इकलौते प्राइमरी स्कूल के हैडमास्टर थे वो। जाति के ब्राह्मण न होने के बावजूद भुनसारे से सोने तक उन्हें देखते ही सबकी जुबान पर यही बोल बिछोहते-‘पाय लागौ पंडिज्जी, जै राम जी की मराज, गुरु जी प्रणाम ! आधुनिक प्रगति के नाम पर जो भी नई लहर कस्बे में आती देर-सवेरे में भी उसकी सुगबुगाहट सुनाई देने लगती, जिसका श्रेय जाता पंडिज्जी को। मसलन-जब से देश में भारतीय जीवन बीमा निगम ने घुसपैठ की तो पंडिज्जी ने पहल करके इस काम को चटपट अपने हाथों में ले लिया। गाँव में डाकखाना कहाँ खोला जाए ? इस समस्या के निदान के लिए पंडिज्जी ने झट्ट से अपने घर का बरामदा हंसी-खुशी खाली कर दिया। गाँव में बाहर से कोई भी नई रामलीला मंडली वाले आएँ या नौटंकी वाले, कैसी भी नई गतिविधि का सूत्रपात होता पंडिज्जी के हाथों। यानी हर नई खबर और नई योजना को अमल में लाने का बीड़ा उठाते पंडिज्जी।
इस प्राइमरी स्कूल को मिडिल तक खींच लाने की पहल भी पंडिज्जी ने ही की। उनकी जद्दोजहद और जी-तोड़ मेहनत से उनके स्कूल का नाम जल्दी ही चमक गया। गाँव से लगभग एक-डेढ़ कोस तक पैदल सफर तय करना पड़ता था बच्चों को। स्कूल जाने का कच्चा और ऊबड़-खाबड़ रास्ता जगह-जगह बने पानी के गड्ढों से होकर निकलता था। एक हाथ में पट्टी और पीठ पर बस्ता लादे बच्चों के पैरों में अकसर काँटे चुभ जाते, सो वे थोड़ी देर रुककर अपने पैरों से काँटे निकाल दुबारा दौड़ लगा देते स्कूल की तरफ। कभी वे बीच रास्ते में लगे कैथा के पेड़ को हसरत-भरी निगाहों से ताकते हुए थोड़ी देर तक यूँ ही बेमतलब खड़े रहते तो कभी इमली के पेड़ तले ठुमकते हुए थमथमाते। कुछ बच्चे नीचे पड़ी कच्ची-पक्की इमलियों को उठाकर खाने लगते तो कुछ उन्हें जेब में ठूँस लेते, फिर बतख की तरह फुदकते कदमों से आगे चलकर दाएँ-बाएँ लगे बेशर्म के पौधों को तोड़ने लगते, फिर उसकी एक-एक डंडी को हवा में झंडे की तरह लहराते हुए एक बार फिर स्कूल की तरफ दौड़ लगा जाते। जब वे हाँफते हुए सुस्ताने लगते तब तक स्कूल की बिल्डिंग दिखाई देने लगती। खेलते-खेलते इस तरह स्कूल पहुँचेने का उनका यह रोज नियम था।
स्कूल के हैडमास्टर यानी पंडिज्जी की स्थायी पहचान थी रोबदार कड़क आवाज, दाएँ हाथ में छड़ी, बाएँ में छाता, आँखों पर गोल फ्रेम का चश्मा, सिर पर सफेद गांधी टोपी और वैसा ही झक सफेद मलमल वाला धोती-कुर्ता।
उनके अलावा दो और मास्टर पढ़ाते थे, लेकिन वे भी पंडिज्जी की एक ऊँची आवाज सुनकर चुप्पी साध लेते। उनके आने पर शुरू होती बच्चों की पढ़ाई। वे कभी जोर-जोर से पहाड़ा रटने लगते तो कभी गर्दन नवाकर पट्टी पर इमला की इबारतें।
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लोगों की राय
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